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June 21st, 2013

विशेष कानूनों के बावजूद भारत में दलितों के खिलाफ बढ़ते अपराध

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ए. रमैया परिचर्चा करते हैं कि भारत में जातीय भेदभाव के विरुद्ध विधानों का इतिहास होने के बावजूद जाति-आधारित हिंसा क्यों बढ़ रही है। 

Click here to read this post in English.

दलित, जिन्हें अनुसूचित जाति (एससी) के रूप में भी जाना जाता है, सदियों से हिंदू जाति व्यवस्था के शिकार रहे हैं। उनके साथ बलात्कार तथा हत्या सहित अनेक प्रकार के जातीय भेदभाव तथा क्रूर हिंसा की जाती है। ब्रिटिश भारत में 1850 के जाति विकलांगता हटानेके अधिनियम XXI (Caste Disabilities Removal Act XXI) के अंतर्गत जातीय भेदभाव तथा अस्पृश्यता के विरुद्ध कानूनी प्रतिबंध लगाया गया था। बाद में, भारत सरकार अधिनियम 1935 ने अनुसूचित जाति के लोगों को विशेष संरक्षा प्रदान की। 1943 और 1950 के बीच, जाति-आधारित विकलांगता समाप्त करने के लिए विभिन्न भारतीय राज्यों द्वारा 17 कानून बनाए गए। किंतु, अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम 1955, तक कोई भी राष्ट्रीय कानून पारित नहीं किया गया था, जिसे इसके प्रावधानों को अधिक कठोर करने के लिए 1976 में संशोधित किया गया तथा जिसका नाम बदल कर  नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 (पीसीआर अधिनियम) कर दिया  गया।  अनुसूचित जातिके  लोगों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों से निपटने के लिए, एक अन्य कानून – अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act), (पीओए अधिनियम) – जनवरी 1990 से अमल में आया।

India-Dalit

इस विधान तथा इसके कामकाज की निगरानी के लिए गठित विशेष आयोगों के बावजूद, भारत भर में जातीय भेदभाव तथा जाति-आधारित अपराध जारी हैं।  यह अच्छी तरह  से  प्रलेखित है  कि पुलिस जाति-आधारित भेदभाव तथा हिंसा के बारे में शिकायत दर्ज करने के लिए अनिच्छुक रहती है इसलिए अनुसूचित जाति केअनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ जातीय अपराधों पर राष्ट्रीय सांख्यिकी अत्यंत कम करके आंकी गई संख्याएँ हैं। हालांकि, यह सीमित आँकड़े भी समस्या की गंभीरता को समझने के लिए पर्याप्त हैं। एक अध्ययन के अनुसार, अस्पृश्यता 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय गाँवों में प्रचलित है। अनुसूचित जाति केअनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अपराध – अपमानजनक मौखिक गालियों से लेकर बलात्कार तथा हत्या तक – भी व्यापक हैं। भारत में 2003 तथा 2009 के बीच गैर- अनुसूचित जाति के लोगों द्वारा अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ किए गए अपराधों के 203,576 मामले दर्ज थे; इनमें से 106,522 मामलों पर अदालतों में मुकदमे चले। इस संदर्भ में, यह पोस्ट पूछती है कि अनुसूचित जाति केअनुसूचित जाति के लोगों की सुरक्षा के विशेष कानून उतने प्रभावकारी क्यों नहीं रहे जितने इच्छित हैं, यद्यपि उन में काफी निवारक असर है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार, अनुसूचित जाति केअनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ हुए पंजीकृत अपराधों की कुल संख्या बढ़ती जा रही हैः  1981 में अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ 14,318 अपराध हुए, यह संख्या 1991 में बढ़कर 17,646, और 2001 में 33,501 हो गई, तथा दरमियानी वर्षों में कुछ बदलावों के साथ, 2009 में 33,594 पर बढ़ी रही। गैर-अनुसूचित जाति के लोगों द्वारा अनुसूचित जाति के लोगों की हत्या के रिपोर्ट किए गए मामलों की कुल संख्या भी 1981 में 493 से बढ़कर 2009 में 624 हो गई। बलात्कार के मामलों के संबंध में भी ऐसी ही बढ़ती प्रवृत्ति स्पष्ट है।

हालांकि, पुलिस द्वारा दर्ज विशेष मामलों की जाँच  संपन्न करने की प्रवृत्ति उत्साहवर्धक है: पुलिस ने भारत भर में 2001 तथा 2009 के बीच 87 प्रतिशत दर्ज मामलों की जाँच संपन्न की; और आगे, निपटाए गए सभी मामलों के 95 प्रतिशत पर अदालतों में मुकदमा चलाने के लिए आरोप पत्र दाखिल किए गए। लेकिन, ऐसे मामलों में दोषसिद्धि की दर निरुत्साहित करने वाली बनी हुई है।

भारत की अदालतें न केवल अनुसूचित जाति के लोगों से संबंधित उन मामलों को निपटाती हैं जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के अंतर्गत दर्ज हैं, बल्कि विशेष मामलों को भी—अर्थात, गैर-अनुसूचित जाति के लोगों द्वारा अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ किए गए वे अपराध जो पीसीआर तथा पीओए अधिनियमों के अंतर्गत दर्ज हैं तथा जिन पर केवल इस उद्देश्य के लिए ही गठित विशेष अदालतों में मुकदमा चलाया जाना है।

राष्ट्रीय स्तर पर, एनसीआरबी आँकड़े विशेष मामलों  की तुलना में आईपीसी मामलों में उच्चतर दोषसिद्धि दर उजागर करते हैं। उदाहरण के तौर पर, 2001 में, आईपीसी मामलों में दोषसिद्धि दर 40.8 प्रतिशत थी, जबकि विशेष मामलों में यह केवल 34.1 प्रतिशत थी। यह स्थिति 2009 में और बदतर हो गई जब विशेष मामलों में दोषसिद्धि दर 29.6 प्रतिशत तक गिरी तथा आईपीसी मामलों में 41.7 प्रतिशत तक बढ़ गई, जिस से इस अंतर में  और भी  बढ़ोत्री हहुई ।

कुछ अपवादों के साथ, यह प्रवृत्ति राज्य स्तर पर भी स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में, विशेष रूप से मायावती के मुख्यमंत्री रहने के दौरान, दोषसिद्धि दर आईपीसी तथा विशेष मामलों, दोनों, में अत्यंत अधिक रही है। साथ ही, यूपी में दलितों के खिलाफ अपराध की धटनाओं में भी वृद्धि पाई गई। इसके लिए दलितों की बढ़ती स्वतंत्रता तथा दावेदारी को और साथ ही साथ राज्य पुलिस द्वारा जाति-आधारित अपराध तत्काल दर्ज किए जाने को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

उदारवादी शिक्षा तथा वैश्विक प्रभावन के कारण जाति व्यवस्था के कुछ लाभार्थियों, विशेष रूप से ऊँची जाति के लोगों ने, अपने आप को जाति संबंधनों से खुदको पृथक किया है। किंतु भेदभाव होना जारी है, जो अनुसूचित जाति के लोगों की संरक्षा करने वाले विशेष कानूनों को और भी प्रभावकारी होने से रोकता है। एक बड़ी समस्या यह है कि पिछड़ी जातियाँ, या शूद्र, जाति व्यवस्था का पालन करती हैं तथा, अपने आप को अपेक्षाकृत ऊँची- जाति का समझते हुए, दलितों के खिलाफ हिंसा करती हैं।

शैक्षिक तथा आर्थिक स्थिति में जो तुलनात्मक सुधार, तथा नौकरशाही व राजनीतिक शक्ति तक जो पहुँच, दलितों ने कई संरक्षात्मक, विधायी तथा विकास उपायों की मदद से हासिल की है, ये सब एक प्रतिघात को उकसा रहे हैं। राजनीतिक तथा नौकरशाही ढांचें में अनुसूचित जाति के लोगों के उत्थान को संसदीय लोकतंत्र की उपलब्धि समझने के बजाय, ऊँची-जाति के हिंदू अक्सर इसे उनके जाति प्रभुत्व के लिए प्रत्यक्ष खतरे के रूप में देखते हैं, जिससे हिंसक प्रतिक्रियाएँ होती हैं।

इसके अलावा, यद्यपि एससी/दलित लोग भारतीय जनसंख्या के 16 प्रतिशत से अधिक हैं, लेकिन ऊँची जाति के लोगों का सामना करने के लिए, अपनी कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पुलिस पर दबाव बनाने के लिए, या अन्यथा जाति उत्पीड़न के विरुद्ध एकजुट होने के लिए प्रत्येक गाँव में  उनकी तादाद बहुत ही कम  होती है। वे आपस में उप-जाति धाराओं में विभाजित भी हैं, यद्यपि कुछ सीमा तक। इससे भी आसानी नहीं मिलती कि दलित भूमिहीन हैं तथा उन्हीं जातियों पर निर्भर हैं जो जीविका अर्जन करने के उनके अधिकार का हनन करती हैं।

जैसे कि यहाँ प्रस्तुत आँकड़े बताते हैं, सामाजिक तथा प्रणालीगत, दोनों, समस्याएँ कानून को दुर्बल बनाती हैं। उदाहरण के लिए, अधिकतर अस्पृश्यता तथा अत्याचार के मामलों में अदालती फैसलों में अनावश्यक विलंब होता है। भारत के विशेष कानूनों के अंतर्गत अपने अधिकारों की रक्षा करने में दूसरों को हतोत्साहित करते हुए, निश्चित प्रक्रिया – जिसमें शामिल है जाँच प्रक्रियाएँ, अदालती सुनवाइयाँ, अपीलें, इत्यादि – एससी पीड़ित को बेहद मानसिक, आर्थिक तथा सामाजिक कठिनाई से गुजारती हैं। और भी निरुत्साहन इस तथ्य से पैदा होता है कि गहरी जातीय निष्ठा प्रायः पुलिस तथा न्यायतंत्र के फैसलों को प्रभावित करती है।

इस संदर्भ में, भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माणकर्ता तथा LSE स्नातक बी.आर.  अम्बेडकरअम्बेडकर का तर्क था कि जब तक जाति व्यवस्था रहेगी जाति-आधारित टकराव अपरिहार्य है। इसीलिए उन्होंने लोगों को आपस में नजदीक लाने के लिए अंतर्जातीय विवाह करवाने का आह्वान किया था।  बाद में, ऊँची जातियों के भीतर अंतर्जातीय विवाह के हिंसक विरोध को समझते हुए, अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपना लिया तथा, दलितों के लिए सम्मान तथा स्वतंत्रता की जिंदगी सुनिश्चित करने हेतु उनके लिए एक “पृथक व्यवस्थापन” का प्रस्ताव रखा।

हाल के वर्षों में, नागरिक समाज संगठनों ने जातीय भेदभाव संबंधी विशेष कानूनों में कई संशोधन करने के प्रस्ताव रखे हैं, जिन्हें उन कानूनों की प्रभावकारिता सुधारने के लिए तुरंत समाविष्ट कर लिया जाना चाहिए। इसके अलावा, पुलिस तथा न्यायतंत्र को जातीय भेदभाव के प्रति संवेदनशील, तथा अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ जाति-आधारित अपराधों से निपटने में उन्हें अधिक जबावदेह, बनाया जाना चाहिए। इन सबसे ऊपर, जो अनुसूचित जाति के लोगों को उत्पीड़ित करते हैं उन्हें सामाजिक संबंधों का आधार पुनर्निर्मित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

एनसीआरबी आँकड़ों के विस्तृत विश्लेषण सहित, इस विषय में अधिक जानकारी के लिए, देखें: रमैया, ए. “विशेष कानूनों के बावजूद भारत में दलितों के खिलाफ बढ़ते अपराध: (Growing crimes against Dalits in India despite special laws): ‘पृथक व्यवस्थापन’ की अम्बेडकर की माँग की प्रासंगिकता। (Relevance of Ambedkar’s demand for ‘separate settlement’.)” जर्नल ऑफ लॉ एंड कॉन्फ्लिक्ट रिजॉल्यूशन वोल्यूम 3(9), पीपी 151-168, नवंबर 2011।

प्रोफेसर ए. रमैया LSE  के एशिया रिसर्च सेंटर में TISS विजिटिंग फैलो हैं।

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