एच.एच.एस. विश्वनाथन का कहना है कि वैश्विक शक्ति बनने की भारत की महत्वकांक्षाएँ अफ्रीकी महाद्वीप के समर्थन के बिना पूरी नहीं हो सकती । भारत-अफ्रीका संबंधों पर दो सप्ताह लंबी श्रृंखला की यह पहली पोस्ट है।
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बाहरी दुनिया के साथ अफ्रीका की संलग्नता के बारे में बात करते समय समाचार पत्रों की कुछ टिप्पणियाँ ऐसा जताती हैं मानो इस महादेश में भारत एक नवागंतुक हो। लेकिन सच्चाई से यह बात कोसों दूर है। अफ्रीका के साथ भारत के संबंध सदियों पुराने हैं तथा औपनिवेशिक युग से पहले के हैं। औपनिवेशिक शक्तियों के भारत तथा अफ्रीका में आने के सदियों पहले, भारत के पश्चिमी तथा अफ्रीका के पूर्वी तट के बीच व्यापार फल-फूल रहा था। औपनिवेशीकरण ने इस रिश्ते को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया। बहरहाल, भारत तथा अफ्रीकी देशों की स्वतंत्रता के बाद दोनों के बीच संलग्नता में तेजी आई। दरअसल, अफ्रीका की आजादी तथा वहां से रंगभेद की समाप्ति के प्रयासों में भारत अग्रणी था।
भारत की अफ्रीका के साथ संलग्नता के चार बुनियादी कारक हैं: पहली बात यह कि, अफ्रीकी देशों और भारत के बीच एकजुटता का भाव है; दूसरे, अफ्रीका के किसी एक देश या फिर इस पूरे महादेश के साथ भारत के हितों का कोई टकराव नहीं है; तीसरे, दोनों एक सरीखे ऐतिहासिक अनुभव से गुजरे हैं; तथा आखिरी बात यह कि, भारत तथा कई अफ्रीकी देशों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ एक-सी हैं और इस कारण दोनों का दृढ़ विश्वास है कि आपसी सहयोग के जरिए व्याप्त समस्याओं के एक सरीखे समाधान खोजे जा सकते हैं।
1960, ’70, तथा ’80 के दशकों में, भारत तथा अफ्रीकी देशों ने गुट निरपेक्ष आंदोलन (एनएएम), जी-77, तथा संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे कई बहुदेशीय मंचों पर प्रभावकारी ढंग से सहयोग किया। यह सहयोग यह सुनिश्चित करने की एक संयुक्त लड़ाई थी कि तत्कालीन “तीसरा दुनिया”,(जैसे कि इसे तब कहा जाता था) हाशिए पर न रह जाये।
आज, भारत-अफ्रीका के बीच भागीदारी एक अलग स्तर पर कायम है क्योंकि भारत तथा अफ्रीका, दोनों ही जगह नाटकीय बदलाव आये हैं। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, खासकर इक्कीसवीं सदी में अफ्रीका के राजनैतिक तथा आर्थिक, दोनों ही क्षेत्रों में बड़ा प्रत्यक्ष पुनरुत्थान हुआ है — कुछ लोगों ने इसे अफ्रीकी नवजागरण की संज्ञा दी है। आज, अधिकतर अफ्रीकी देशों ने बहु-दलीय लोकतंत्र अपना लिया है। हिंसक संघर्ष तथा सैन्य तख्ता-पलट की घटनाओं में जबर्दस्त कमी आई है। आर्थिक मोर्चे पर पुनरुत्थान कहीं अधिक विशिष्ट है: विश्व की सबसे तेजी से विकास कर रही 10 अर्थव्यवस्थाओं में से सात उप-सहारीय अफ्रीका में हैं। पिछले दो दशकों में, भारत भी विश्व की प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाने लगा है। भारत और अफ्रीका के बीच भागादारी को नई ऊंचाइयों पर ले जाने में इन बदलावों ने जरुरी नींव का काम किया है।
भारत के लिए आज के अफ्रीका का महत्व स्वतःस्पष्ट है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर असर डालने वाली वैश्विक शक्ति बनने की भारत की महत्वकांक्षाएँ 55 देशों को समाहित करने वाले अफ्रीकी महाद्वीप के समर्थन के बिना पूरी नहीं हो सकती। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार के मुद्दे पर भारत ने अफ्रीकी देशों का महत्व सबसे अधिक महसूस किया। भारतीय उप-महाद्वीप के बीस लाख से ज्यादा प्रवासी अफ्रीका में हैं। भारत के लिए अफ्रीका को संलग्न करने की एक बड़ी जरुरत इस वजह से भी पैदा होती है। इसके अलावा कुछ आर्थिक कारण भी हैं जिसमें शामिल है अफ्रीका से हासिल होने वाले मूल्यवान प्राकृतिक संसाधन, और बढ़ते हुए मध्यवर्ग के बीच विकसित होता अफ्रीका का विशाल बाजार।
भारत-अफ्रीका के बीच व्यापार में हाल में शानदार बढोत्तरी हुई है और इससे दोनों के बीच भागीदारी के मजबूत होने की झलक मिलती है। दोनों के बीच साल 2005 में मात्र 20 अरब अमेरिकी डॉलर का व्यापार हुआ था जो 2010 में बढ़कर 53 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया और साल 2015 तक इसके 90 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की संभावना है। अफ्रीका में भारत का निवेश भी बढ़ा है। अफ्रीका में भारत ने कुल 50 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है। इसमें $35 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश सार्वजनिक क्षेत्र से तथा 15 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश निजी क्षेत्र से हुआ है। लगभग 250 भारतीय कंपनियों का अफ्रीका के साथ निवेश का रिश्ता है। इसमें भारती एयरटेल, टाटा, किर्लोस्कर, महिंद्रा, बजाज, एस्सार समूह, एनआईआईटी, तथा सिप्ला जैसे बड़े नाम शामिल हैं।
निजी क्षेत्र इस भागीदारी को आगे बढ़ाये, इसकी बुनियाद तैयार करते हुए भारत सरकार ने बड़ी सक्रियता से उपाय किए। 2008 में इंडिया-अफ्रीका फोरम समिटस्(भारत-अफ्रीका शिखर-सम्मेलन मंच) की स्थापना, स्थिति को निर्णायक ढंग से बदलने वाली साबित हुई। अब तक, दो शिखर-सम्मेलन हो चुके हैं; पहला 2008 में नई दिल्ली में तथा दूसरा 2011 में अदीस अबाबा में। इन शिखर-सम्मेलनों में लिए गए निर्णयों ने संलग्नता की प्रकृति में गुणात्मक अंतर पैदा किया है। उदाहरण के लिए, पहले शिखर-सम्मेलन के दौरान, भारत ने अफ्रीका के 34 अल्पतम विकसित देशों (एलडीसी) से आयात के तरजीही बाजार-पहुंच की एकतरफा पेशकश की थी। दोनों शिखर-सम्मेलनों में कुल मिलाकर 10 अरब अमेरिकी डॉलर की ऋण व्यवस्थाएँ (एलओसी) हुई। इसके अलावा, 30 करोड़ अमेरिकी डॉलर इथियोपिया-जिबूती रेलमार्ग के लिए उद्दिष्ट किए गए। भारत के विदेश मंत्रालय में हाल ही में ‘डेवलपमेंट पार्टनरशिप एडमिनिस्ट्रेशन ’ का गठन हुआ है। इससे एलओसी के अंतर्गत आने वाली परियोजनाओं के त्वरित तथा प्रभावकारी क्रियान्वयन में मदद मिलेगी।
भारत ने हमेशा ‘दक्षिण-दक्षिण सहयोग'(साऊथ-साऊथ कोऑपरेशन) को महत्व दिया है। यह ‘दाता-ग्रहीता’ प्रतिरूप पर आधारित सहायता की पश्चिमी संकल्पना को अस्वीकार करता है। भारत की विकासपरक भागीदारी तीन मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है: भारत शर्तें नहीं थोपता है, नीतियाँ निर्धारित नहीं करता है, न ही संप्रभुता पर प्रश्न खड़ा करता है। बल्कि साथी देश से भारत की भागीदारी उस देश की मांग से प्रेरित होती है। अफ्रीका में भारत की अग्रणी पहल थी 1964 में शुरू होने वाला ‘भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग’ (आईटीईसी) कार्यक्रम। इस कार्यक्रम का जोर मानव-संसाधन विकास तथा क्षमता-निर्माण पर था, इसकी वजह से हजारों अफ्रीकी नवयुवक तथा नवयुवतियाँ को कृषि, लेखाशास्त्र, सूचना प्रौद्योगिकी, प्रबंध-शास्त्र तथा लघु और मझोले उद्योग के क्षेत्र में प्रशिक्षित किया गया। भारत-अफ्रीका मंच के प्रथम शिखर-सम्मेलन में, आईटीईसी के अंतर्गत दी जाने वाली छात्रवृत्तियों की संख्या तत्कालीन 1,000 से बढ़ाकर 1,500 कर दी गईं। दूसरे शिखर-सम्मेलन के दौरान, भारत ने 20,000 अफ्रीकी विद्यार्थियों को अगले तीन वर्षों में प्रशिक्षित करने की प्रतिबद्धता जताई। इसी कड़ी में अगला तर्कसंगत कदम उठाते हुए भारत ने अफ्रीकी देशों में प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने का फैसला किया और $70 करोड़ अमेरिकी डॉलर इस उद्देश्य के लिए निर्धारित किए। एक अन्य सफल भारतीय परियोजना पैन अफ्रीकन ई-नेटवर्क है जो पूरे अफ्रीकी महादेश में संचालित हो रही है। इसके तहत अफ्रीका के विश्वविद्यालयों और अस्पतालों को ई-स्वास्थ्य तथा ई-शिक्षा के मामले में सक्षम बनाने के लिए भारत के समतुल्य विश्वविद्यालयों और अस्पतालों से जोड़ा गया है।
आने वाले दिनों में अफ्रीकी महादेश वैश्विक स्तर पर एक प्रमुख विनिर्माण-केंद्र(मैन्युफैक्चरिंग हब) बनकर उभरने वाला है। इस बात की पहचान करते हुए भारत अफ्रीका में क्षमता-निर्माण की पहलकदमियां मानव-पूंजी में निवेश की दृष्टि से कर रहा है। 2010 की मैक्किंसे रिपोर्ट के अनुसार साल 2040 तक 1.1 अरब अफ्रीकी लोग कार्य करने के आयु-वर्ग में होंगे। इस दूरदृष्टि; भारत और अफ्रीकी अर्थव्यवस्थाओं के बीच की स्वाभाविक परिपूरकता तथा उत्कृष्ट राजनीतिक संबंधों का साफ मतलब है कि आने वाले वर्षों में भारत-अफ्रीका भागीदारी को और आगे बढ़ते जाना है।
राजदूत एच.एच.एस विश्वनाथन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ), नई दिल्ली में डिस्टिंगुइस्ट फैलो हैं। वे कई अफ्रीकी देशों में भारत के राजदूत तथा उच्चायुक्त रह चुके हैं। इस पोस्ट में अभिव्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।