प्रोफेसर सुमंत्र बोस ने “ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया:चैलेंजेज टू द वर्ल्डस् लार्जेस्ट डेमोक्रेसी” नाम से एक नई किताब लिखी है। किताब में, शक्तिशाली क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उभार के बीच 1990 के दशक से भारत की राजनीति में आ रहे बदलावों का वर्णन किया गया है, साथ ही माओवादी विद्रोह तथा कश्मीर मुद्दे से जुड़ी समकालीन चुनौतियों का सामना करने के लिए जरुरी शेष परिवर्तनों पर चर्चा की गई है।
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अपनी नई पुस्तक “ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया: चैलेंजेज टू द वर्ल्डस् लार्जेस्ट डेमोक्रेसी” में प्रोफेसर सुमंत्र बोस का जोर इस बात पर है कि भारतीय लोकतंत्र को सिर्फ अभिजन की राजनीति ने ही नहीं बल्कि जन-संघर्षों ने भी गढ़ा है। इस संदर्भ में, बोस भारत की राज्य व्यवस्था और राजनीति के क्षेत्रीयकरण यानी भारत के विभिन्न राज्यों में समुदाय विशेष की पहचान पर आधारित और उस समुदाय के हित का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के उद्भव का रेखांकन करते हैं।
इस साक्षात्कार में प्रोफेसर बोस ने क्षेत्रीयकरण की प्रवृत्ति की चर्चा के क्रम में भारत के 2014 के राष्ट्रीय चुनावों की क्षेत्रीकृत गतिकी पर विचार किया है और उनका कहना है कि भारतीय़ लोकतंत्र अब भी अपने निर्माण की प्रक्रिया में है- यानी एक “ऐसा सफर जो अभी जारी” है।
प्रश्न. “ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया” में आपने क्षेत्रीयकरण को लोकतंत्र का परिणाम माना है लेकिन भारत के विभिन्न क्षेत्रों की आपसी विषमताओं को देखते हुए क्या यह नहीं कहा जा सकता कि क्षेत्रीयकरण से विखंडन हो सकता है ?
उत्तर. क्षेत्रीयकरण अपनी जटिलताओं और चुनौतियों के साथ आता है लेकिन यह एक सच्चाई है और भारत को इसका सामना करना है। देश के दो सबसे बड़े दल – कांग्रेस और भाजपा – में से कोई भी पूरे भारत में आधार रखने वाला राष्ट्रीय दल नहीं है और संभावना है कि अप्रैल-मई 2014 के चुनाव के बाद उनके हाथ में कुल 543 लोकसभा सीटों के आधे से बहुत कम सीटें आयेंगी।
इस संदर्भ में, क्षेत्रीय दल और उनके नेताओं के बारे में तीन प्रश्न पूछे जा सकते हैं। पहला, क्या क्षेत्रीय दल अपने चुनाव क्षेत्रों की अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं? सर्वाधिक लोकप्रिय क्षेत्रीय नेताओं को यह लगने लगा है कि उनकी राजनीतिक संभावनाएं सुशासन, विकास और सेवा प्रदान करने पर निर्भर हैं। इस लोकप्रियता को बनाए रखने के लिए उन्हें अपने राज्यों में अग्रगामी और सक्षम शासन प्रदान करना होगा । दूसरी सवाल यह कि क्या क्षेत्रीय दल जरुरत के वक्त राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सोच सकते हैं; मिसाल के लिए क्या वे विदेश-नीति और ढांचागत सुधारों के मामले में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य अपना सकते हैं? तीसरा सवाल, क्या क्षेत्रीय दलकन्सर्ताशियॉन में समर्थ हैं? यह राजनीतिक शब्द स्पेनिश बोलने वाले देशों में प्रचलित है। मुहावरे को तौर पर अनुवाद करें तो इसका अर्थ होगा विभिन्न राजनीतिक वर्गों के बीच समझौते तक पहुंचने का कौशल। भारत को कारगर कन्सर्ताशियॉन की ज़रूरत है ताकि विभिन्न राज्यों से आने वाली अलग-अलग ताकतों के सहकार से एक राष्ट्रीय सरकार बनायी जा सके।
प्रश्न. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनावों के लिए हाल में भाजपा ने अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार मनोनीत किया है। क्या इस मनोयन से भारतीय राजनीति में जारी उस क्षेत्रीयकरण की प्रवृत्ति की झलक मिलती है जिसका जिक्र आपने अपनी पुस्तक “ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया” में किया है?
उत्तर. मोदी का उत्थान वास्तव में भारत की राजनीति के क्षेत्रीयकरण का पता देता है। मोदी की ख्याति गुजरात के सर्वेसर्वा के रूप में है जहाँ उन्होंने लगातार तीन चुनाव जीते हैं। पुस्तक में, मैंने लिखा है कि क्षेत्रीयता की गतिकी इतनी ताकतवर है कि दो ‘राष्ट्रीय दलों’ में से एक – भाजपा – का क्षेत्रीयकृत उत्थान हुआ है। जिन राज्यों में भाजपा की स्थिति सुदृढ़ है, वे निश्चित रूप से ऐसे राज्य हैं जहाँ भाजपा के पास भरोसेमंद क्षेत्रीय, राज्य-आधारित नेता हैं। इसका उदाहरण सिर्फ मोदी नहीं हैं— इस कड़ी में शिवराज चौहान मौजूद हैं जो पिछले आठ वर्ष से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, और रमन सिंह भी हैं जो 2003 से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं।
जो बात स्पष्ट नहीं हो पा रही वह यह कि एक मंझोले आकार के राज्य में सफल क्षेत्रीय राजनेता के रूप में मोदी की साख का विस्तार क्या आगामी महीनों में उनके लिए राष्ट्रव्यापी लहर का रूप ले सकेंगा? मेरा मानना है कि ऐसा नहीं होगा। क्षेत्रीयकरण के युग में भारतीय राजनीति बड़ी जटिल और विभंजित है। इसे देखते हुए मुझे इस बात पर संदेह है कि मोदी एक ऐसे राष्ट्रव्यापी नेता के रूप में उभरेंगे जिसकी आशा उनके समर्थकों ने लगा रखी है। पूरे देश पर पकड़ रखने वाला एकल नेता का विचार- जैसा कि 1970 के दशक में अनेक वर्षों तक इंदिरा गांधी के बारे में था –क्षेत्रवाद के युग में पुराना पड़ चुका है। किसी राष्ट्रव्यापी ‘रक्षक’ व्यक्तित्व की खोज एक भुलावा है; 2014 के चुनाव के परिणामों को राज्यों के स्तर पर जारी जटिल गतिकी निर्धारित करेगी।
प्रश्न. इस बात को आगे बढ़ाते हुए पूछें तो, क्या क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय स्तर पर राष्ट्रीय दलों या अन्य शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा करेंगे?
उत्तर. शुरुआती तौर पर क्षेत्रीय दलों का उभार एकल-दल (कांग्रेस) के आधिपत्य को चुनौती देने वाली शक्ति के रूप में हुआ। लेकिन यह स्थिति अब पूरी तरह बदल गई है और मजबूत क्षेत्रीय दलों के विस्तार के साथ अब भारत में, राष्ट्रव्यापी आधिपत्य वाले एक-पार्टी केंद्रित लोकतंत्र की जगह एक बहुकेंद्रिक लोकतंत्र ने ले ली है।
अब राज्यों के भीतर ज़बरदस्त राजनीतिक विविधता है, और क्षेत्रीय स्तर पर वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले विकल्पों की संख्या एक से ज्यादा है। भारत के छह सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्यों की राजनीतिक गतिकी पर विचार करें: उत्तर प्रदेश में, इक्कीसवीं शताब्दी में दो क्षेत्रीय दल सपा और बसपा बारी-बारी से सत्ता में रहे हैं। बिहार में, दो सबसे बड़े दल राजद औरजदयू हैं। पश्चिम बंगाल में, तृणमूल कांग्रेस का वर्चस्व है और यहां दूसरा बड़ा दल भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी-मार्क्सिस्ट है, जो कहने को तो राष्ट्रीय दल है व्यवहारिक तौर पर वह पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा तक सीमित एक क्षेत्रीय दल ही है। तमिलनाडु में भी इससे मिलती-जुलती स्थिति है—1960 के दशक के उत्तरार्ध से सत्ता पर द्रमुक और अन्नाद्रमुक का बारी-बारी से कब्जा रहा है। अन्नाद्रमुक 1972 में द्रमुक के विभाजन के फलस्वरुप बनी थी। अगर अविभाजित आंध्र प्रदेश के बारे में बात करें तो टीआरएस तेलंगाना में सबसे अधिक लोकप्रिय पार्टी है जबकि वाईएसआर कांग्रेस का अन्य दो क्षेत्रों (तटीय आंध्र और रायलसीमा) में सर्वाधिक लोकप्रिय पार्टी के रुप उभार हुआ है। 1982 में गठित पुरानी तेदेपा(टीडीपी) भी मौजूद है और अफवाह है कि आंध्रप्रदेश के वर्तमान कांग्रेसी मुख्यमंत्री एक अलग क्षेत्रीय दल के गठन की योजना बना रहे हैं। छह सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्यों में से एक महाराष्ट्र वर्तमान में ऐसा अकेला राज्य है जहाँ राष्ट्रीय दल – कांग्रेस और एक सीमा तक भाजपा – अग्रणी दल हैं लेकिन यहां भी इन दो दलों का क्रमशः राकांपा और शिवसेना से गठबंधन है।
प्रश्न. भारत के क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के लिए आगे कौन-सी चुनौतियाँ आएंगी?
उत्तर. भारत के लोकतंत्र की कथा को तीन चरणों में बांटकर देखा जा सकता है: 1947 और 1989 के बीच, एक दल का लगभग लगातार शासन था और आधिपत्य कांग्रेस का था। 1990 के बाद से भारत की राजनीति विखंडित और कई धड़ों में बंटी। इस दौर में हमने जाति, उप-जाति, भाषाई और अन्य सामुदायिक पहचानों के आधार पर क्षेत्रीय दलों का उदय देखा। यह चरण अभी भी जारी है लेकिन इस मुकाम पर अगले चरण का आरंभ भी देखा जा सकता है। अगले 10 से 20 वर्षों में सबसे सफल राजनेता और दल वे होंगे जो नए उभरते समूह मसलन महिला-मतदाता, युवा मतदाता (लगभग 18 से 35 वर्ष की आयु के बीच) और ‘मध्यम वर्गीय’ हैसियत और जीवन शैली के आकांक्षी मतदाताओं की बढ़ती तादाद को अपनी तरफ खींच सकें। बहरहाल, यह तीसरा चरण भारत की क्षेत्रीकृत राजनीति के परिप्रेक्ष्य में राज्यों के बीच ढ़ेर सारी विशिष्टताओं और विविधताओं के साथ प्रकट होगा।