संघमित्रा बंधोपाध्याय का कहना है कि भारत की जीडीपी वृद्धि को कुछ राज्यों में केंद्रित अर्थव्यवस्था के फुटकल क्षेत्रों से गति मिली है।
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आर्थिक विकास की प्रक्रिया अक्सर असमान होती है। विश्वस्तर पर असमानता की मौजूदगी इस बात को प्रमाणित करती है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विकास की दर असमान रही है। पिछले 50 वर्षों के दौरान ब्राजील, चीन, दक्षिण अफ्रीका, वियतनाम और श्रीलंका जैसे देशों ने भारत, पाकिस्तान और युगांडा की तुलना में अधिक तेज गति से विकास किया है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि विकसित और विकासशील दोनों तरह के देशों में, देश के भीतर होने वाला विकास भी असमान है।
विकासशील देशों के मानक के हिसाब से देखें तो भी नजर आता है कि भारत में क्षेत्रीय विकास, खास तौर पर, असमान रहा है। बीसवीं सदी के साठ के दशक से लेकर अब तक, भारत में क्षेत्रीय विकास का ध्रुवीकरण हुआ है- नतीजतन एक तरफ ऊंची आय वाले क्षेत्र हैं तो दूसरी तरफ नीची आय वाले क्षेत्र। समृद्ध-क्षेत्र के भीतर गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब और हरियाणा आते हैं और हाल में तमिलनाडू और कर्नाटक भी इसमें जुड़े हैं। निम्न आय वाले क्षेत्र में अन्य राज्यों के अलावा ओडीसा, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश शामिल हैं। चिंताजनक बात यह है कि इस ध्रुवीकरण की बुनावट पिछले चार दशकों से अब तक मोटामोटी एक-सी बनी हुई है।
इसके अतिरिक्त मध्यम आय वाले राज्यों का एक ‘गतिशील’ समूह और रहा है जिनकी किस्मत में फेर-फार होते रहता है। उदाहरण के लिए, बीसवीं सदी के साठ के दशक में पश्चिम बंगाल एक समृद्ध राज्य था लेकिन सत्तर और अस्सी के दशक में वहां गिरावट आई। दूसरी ओर, तमिलनाडु में जीवन स्तर में निरंतर सुधार देखा गया है और आज उसे एक समृद्ध राज्य माना जाता है।
सामाजिक-आर्थिक विषयों पर केंद्रित लेखन का एक बड़ा हिस्सा इस असमान वृद्धि को समझने की कोशिशों से भरा पड़ा है। इन कोशिशों के अंतर्गत राज्य की प्रकृति से लेकर नियोजन और विकास, राजकोषीय संघवाद, कर-प्रणाली, निवेश, शिक्षा तथा आधारभूत ढांचा जैसे कई अलग-अलग कोनों से स्थिति की व्याख्या की गई है। परंतु विकास की किसी एक गतिधारा की बात करें तो उसमें, अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों के हिसाब से, एक खास स्थानिक पैटर्न देखने को मिलता है : देश (जैसे कि यूरोपीय यूनियन में शामिल देश) और देशों के भीतर के क्षेत्रों (उदाहरण के लिए, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और चीन के भीतर) में विकास के ऐसे पैटर्न दिखते हैं जहां आर्थिक विकास पास-पड़ोस के इलाकों में “छलक कर” पहुँचा है
ऐसा कैसे होता है- यह जानना आसान है। उत्पादन करने वाले क्षेत्र अपनी आपूर्ति के स्रोत और बाजारों से सड़क और रेलमार्गों के जरिए जुड़े होते हैं। मुख्य उद्योग से संबद्ध सहायक उद्योग भी परिवहन की सुविधा के लिए उसी क्षेत्र में स्थापित होते हैं और इस प्रकार एक ही जगह उद्योगों का एक समुच्चय उभर आता है। यह औद्योगिक संकेंद्रण कम और आर्थिक गतिविधियों का स्थानिक संकेंद्रण ज्यादा है।
किसी एक जगह केंद्रित आर्थिक गतिविधियों का विकासपरक छलकाव पास-पड़ोस के इलाके में हुआ हो- भारत में ऐसा होने के प्रमाण नहीं मिलते। यह एक असामान्य घटना कही जाएगी लेकिन हाल के अध्ययनों से यह बात उजागर हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो, ‘छलकाव-प्रभाव’ से यह स्पष्ट नहीं होता है कि क्यों भारत के कुछ राज्य-विशेष धनी अथवा गरीब राज्यों के समूह के रुप में मौजूद हैं। बहरहाल, धनी या गरीब राज्यों के समूह में शामिल प्रत्येक राज्य का मूल्यांकन अलग-अलग करें तो इस विसंगति का कारण स्पष्ट हो जाता है।
भारत के पश्चिमी तट पर स्थित और समृद्ध राज्यों में शामिल, गुजरात और महाराष्ट्र उद्योग-प्रधान राज्य हैं और उनके अधिकांश उत्पाद निर्यात किये जाते हैं। दूसरी तरफ, पंजाब और हरियाणा भारत की ‘अन्न की टोकरी’ हैं। ये राज्य भारत का 50 प्रतिशत से अधिक चावल और गेंहू का उत्पादन करते हैं। कृषि-प्रधान ये दो राज्य गुजरात और महाराष्ट्र के नजदीकी हैं लेकिन इनके बीच ऐसा कोई आर्थिक-संपर्क नहीं है जिसके जरिए ‘छलकाव’ हो सके। गुजरात और महाराष्ट्र भी परस्पर औद्योगिक रूप से भिन्न हैं: गुजरात वस्त्र और यंत्रों के कलपुर्जों का उत्पादन करता है जबकि महाराष्ट्र का जोर मोटर-वाहन, विमानन और कृषि-उपकरणों के उत्पादन पर है। इन चार राज्यों के आधार पर (आंशिक तौर पर संस्पर्शी पश्चिमी राज्य ) कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि समृद्ध कहलाने वाले राज्यों के समूह पर क्यों पास-पड़ोस की आर्थिक गतिविधि का प्रभाव नहीं पडा है। इन राज्यों के उद्योग परस्पर एक-दूसरे को ना तो लाभ पहुंचाते हैं और ना ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
हाल ही में, कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों ने समृद्ध राज्यों के समूह में प्रवेश किया है। इसमें भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित तमिलनाडु विशेष रुप से उल्लेखनीय है। अपनी बसाहट में यह अन्य समृद्ध राज्यों का पड़ोसी नहीं है लेकिन अन्य चार राज्यों की भांति यह भी विनिर्माण, खास तौर पर पोत निर्माण पर आधारित है। हालांकि गुजरात या महाराष्ट्र में से किसी भी राज्य के साथ इसका कोई भौगोलिक संपर्क-सूत्र नहीं है। दक्षिण-पश्चिम में स्थित कर्नाटक ने अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए वित्त और सूचना-प्रौद्योगिकी में परामर्श देने के क्षेत्र में एक स्वतंत्र गति-धारा(इंजीन) विकसित किया है लेकिन अन्य क्षेत्रीय उद्योगों से इसका जुड़ाव भी बहुत कम दिखाई पड़ता है।
गरीब कहलाने वाले राज्यों — उत्तर प्रदेश (उत्तर, हिमालयी क्षेत्र के नीचे), राजस्थान (सुदूर-पश्चिम, रेगिस्तान), मध्यप्रदेश (मध्य, शुष्क पठार), बिहार और ओडीसा (उत्तर-पूर्व के परस्पर समीपस्थ राज्य) और सुदूर-पूर्व में हिमालय क्षेत्र के निचले राज्यों — में कुछ खेती-बाड़ी होती हैं लेकिन राष्ट्रीय जीडीपी में इनका योगदान मामूली है। स्पष्ट है कि विकास की गतिधारा(इंजीन) की गैरमौजूदगी की वजह से, ऐसा कोई आर्थिक तंत्र नहीं बन पाया है जिसके द्वारा ये राज्य जुड़ सकें और ‘छलकाव-प्रभाव’ से लाभ उठा सकें।
इस परिदृश्य से भारत की आर्थिक-संवृद्धि और क्षेत्रीय विकास के लिए चिंताजनक निहितार्थ उभरते हैं। हालांकि भारत ने पिछले 15 वर्षों में अप्रत्याशित रूप से जीडीपी की ऊंची विकास दर हासिल की है परंतु ऐसा जान पड़ता है कि इस विकास को भारतीय अर्थव्यवस्था के केवल कुछ क्षेत्रों से गति हासिल हुई है, और इससे भी ज्यादा बदतर स्थिति यह है कि इस विकास को पंख केवल कुछ राज्यों के कारण लगे हैं। भारत के संवृद्धि केंद्र एक-दूसरे से जुड़े हुए नहीं है—ना तो भौगोलिक रूप से और ना ही संवृद्धि की किसी खास गतिधारा(इंजीन) से। छलकाव-प्रभाव से हीन गिने-चुने संवृद्धि केंद्र होने की वजह से राज्यों के बीच रोजगार का वितरण अत्यधिक असमान हो गया है और अपेक्षाकृत निर्धनतर राज्यों में कुछ इलाके गरीबी के केंद्र बन गए हैं।
इस तरह भारत की असमान आर्थिक-संवृद्धि से क्षेत्रीय गरीबी की स्थिति के और भी विकराल होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। देश भर में रोजगार और जन-कल्याण अधिक सुसंगत तरीके से प्रदान किया जा सके इसके लिए बहुत जरुरी है कि संवृद्धि- केंद्रों से उत्पन्न सहायक आर्थिक गतिविधियों (उद्योग, वित्त, सेवा) को विकसित किया जाय।
इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए, देखें बंधोपाध्याय, एस: “कंवर्जेंस क्लब्स इन इनकम्स एक्रॉस इंडियन स्टेट्स: इज देअर एविडेंस ऑफ ए नेबर्स इफेक्ट? ”, इकोनॉमिक्स लैटर्स, 116, 565-570, 2012.
डॉ संघमित्रा बंधोपाध्याय लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स स्थित स्टिसेर्ड में रिसर्च एसोसिएट हैं और क्वीन मैरी, यूनिवर्सटी ऑफ लंदन में अर्थशास्त्र के प्रवक्ता हैं।